सुभाष राय की कविताएँ सच्‍चाई का दस्तावेज़

0

‘सच बोलना भी लाजिम जीना भी है जरूरी’
सच बोलने की धुन में मंसूर हो न जाना।‘’

आज के समय में किसी शायर का यह शेर कितना मौजूं लगता है। कहा जाता है कि जब लोकतंत्र में कोई भी विपक्ष न बचे तब कविता ही एक मात्र विपक्ष का मोर्चा सम्हालती है। कवि वही है जो सचाई से मुंह न मोड़े । कभी यही बात पत्रकारिता के लिए कही जाती थी कि जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। आज पत्रकारिता की यह भूमिका बदल गयी है।

नोबल पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर ठुकरा दिया था

कविता पर बात करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन नहीं भूलता कि जैसे-जैसे आधुनिकता का बोलबाला बढ़ता जाएगा, कवि कर्म कठिन होता जाएगा। आज वैसा ही परिदृश्य है। प्रलोभन और वशीकरण के इतने संजाल हमारे सम्मुख हैं कि उनसे बच पाना कठिन है। कभी एक भी रोयां सत्ता के प्रति कृतज्ञ न हो, इसके लिए सार्त्र ने नोबल पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर ठुकरा दिया था। ‘

मुरव्वत के सचाई के पक्ष में खड़ी नजर आती है…

संत को कहा सीकरी सो काम’ कह कर संत सत्ता का मखौल उड़ाया करते थे। पर अब धीरे धीरे संतों का सत्ता से समीकरण इतना प्रबल हो चुका है कि न सत्ता संतों के बिना सुकून महसूस करती है न संत सत्ता की छत्रछाया के बिना निर्भय रह पाते हैं। कविता के सामने सारा परिदृश्य साफ है और आज भी सच्ची कविता बिना मुरव्वत के सचाई के पक्ष में खड़ी नजर आती है।

’सलीब पर सच’ के साथ वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय का कविता में शुभागमन इस बात का परिचायक है कि अभी भी शब्दों के सारथियों का साहस चुका नहीं है। वे भले शब्दों की थोक खपत के उपक्रमों से जुड़े हों, कविता के लिए उनके पास नैतिक दुस्साहस कम नहीं। तभी तो ऐसे कवियों के भीतर कविता प्राण की तरह बसती है और वह यह कहने में फख्र महसूस करता है कि कविता मैं नहीं रचता, कविता मुझे रचती है।

Also Read :  …तो इस शख्स ने की मुन्ना बजरंगी की हत्या

वही है जो गिरने पर सम्हालती है, प्यार से थपकियां देती है और संकट आने पर हाथ थामे रहती है। अपने आमुख में सुभाष राय कविता के प्रति अपने कौल करार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘ मेरी नजर में कविता मनुष्यता के पक्ष में एक ऐसी सशक्त आवाज है जो निरंतर विद्रूप को तोड़ कर उसे ज्यादा मानवीय और सुंदर बनाने का काम करती है।

कभी देवीप्रसाद मिश्र ने लिखा था, ‘मेरा पहचानपत्र किसी भी सताये हुए आदमी की जेब में मिल सकता है।‘ राय कहते हैं, ‘मेरा परिचय उन सबका परिचय है जो सोये नहीं हैं जनम के बाद।‘ कवि का कौल है कि उसे आग बोनी है और अंगारे उगाने हैं, इसलिए वे अपने परिचय में उन सबका परिचय शामिल मानता है जो एक दूसरे को जाने बिना आग के इस खेल में शरीक हैं।

कायर डरपोक व गुलाम बनाने पर आमादा हैं

जैसा कि कहा सुभाष राय शब्दों के परिसर के नागरिक हैं। तरह तरह के शब्दों से उनका पाला पड़ता है। ऐसे भी शब्द कि जरा सा चलने पर उनकी सांस उखड़ जाए, ताकत की तरह उन्हें उछालना चाहो तो हिम्मत नहीं होती उनकी, ऐसे भी शब्द हैं जिन्हें आजमाने पर वे जर्जर ढोल की तरह निकले। आज ताकतें शब्दों को कमजोर, कायर डरपोक व गुलाम बनाने पर आमादा हैं।

सुभाष राय की शब्द कविता यही संदेश देती है। याद आती है ज्यां पॉल सार्त्र की कृति ‘शब्द’ जिसमें उन्होंने लिखा था शब्द के इस्तेमाल में सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि शब्द बुलेट की तरह होते हैं। आखिर वे क्या स्थितियां रही होंगी कि धूमिल को लिखना पड़ा होगा : ‘अक्षरों की तरह गिरे हुए आदमी को पढ़ो।‘

साठोत्तर मोहभंग ने हमें धूमिल, राजकमल चौधरी, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर व श्रीकांत वर्मा जैसे बड़े कवि दिए तो आठवें और नवें दशक के कवियों में लोकतंत्रचेता कवियों की तादाद आश्वस्तिदायी रही। सुभाष राय इस सदी के डेढ दशक के दौरान हुए परिवर्तनों की उपज हैं जिन्होंने पत्रकार के रुप में शब्दों का पतन देखा है तो कवि के रुप में अपनी जगह से गिरे हुए शब्दों को धो पोंछ कर उठाने का यत्न भी किया है।

वे कहते हैं, जब भी आसमान की ओर देखता हूँ / चिड़ियों की उड़ान उदास कर देती है/ कंधों पर महसूस करता हूँ/ झड़ गए पंखों के निशान/ गहरे घाव की तरह(उड़ान, पृष्ठ 15 ) कहना न होगा कि कवि क्रांतदर्शी होने के साथ साथ, स्वप्नदर्शी होता है; वह कविता में सच्चे लोकतंत्र की खुशबू तलाशता है। राय भी सपनों के पक्षधर हैं। कहते हैं, ‘’ जिनके पास सपने नहीं होते/ सचमुच वे कहीं नहीं पहुंचते।

याद आते हैं बालस्वरूप राही जिन्होंने कहा है : ‘जिनके सपनों में आग होती है/ रात भर करवटें बदलते हैं।‘ सुभाष राय की कविताएं इसी आग की ओर इशारा करती हैं। अन्यत्र एक कविता ‘मंजिल’ में वे लिखते हैं:

जो लीक छोड कर चलते हैं अनवरत
अपने सपनों का पीछा करते हुए
सिर्फ वे ही गाड़ पाते हैं
नए शिखरों पर विजय के ध्वज
सपनों के पांव ही रौंद पाते हैं मंजिल को।

राय का ताल्लुक गांव से है।मऊ के एक गांव में पले बढे। बाद में भाषा और साहित्य की तालीम हासिल की, संत कवि दादूदयाल पर शोध किया। पर पत्रकारिता के तमाम पड़ावों से गुजरते हुए भी उनका मन शब्दों के करघे पर कविताएं ही बुनता रहा। उनकी कवि कल्पना में जंगलराज की आलोचना मिलती है तो गांधी की विरासत खतरे में लगती है।

इतिहास के तमाम अनुत्तरित प्रश्न उनका पीछा करते हैं तो विकास के वायदे के पीछे इरादे समझना उन्हें मुश्किल लगता है। यह वह कवि है जो नदी के पास गुजरते हुए तरल सजल हो उठता है तो नश्वरता के बावजूद यह कहता हुआ दिखता है कि: मैं मिट्टी हूँ, पृथ्वी हूँ मैं/ हर क्षण जीवन उगता, मिटता है मुझमें।(मुझमें तुम नया रचो, पृष्ठ 77) मरणधर्मा संसार में कभी एक कवि ने लगभग कुछ इन्हीं शब्दों में लिखा था, मर रहा हूँ मैं, मर रहा है संसार लगातार।

अस्तित्ववादी चिंतन के दूसरे छोर पर खड़े सुभाष राय मृत्यु को जीने का सोपान मानते हैं। कहते हैं, ‘’ मत्यु के बगैर जीना संभव नहीं/ जीने के लिए मरने की तैयारी बहुत जरूरी है।(मृत्यु के साथ जीना, पृष्ठ 81) मृत्यु और जीवन को लेकर पेड़, मर कर जी उठना व मृत्यु के साथ जीना जैसी कविताएं उनके पास हैं जो उन्हें इस बात के लिए आश्वस्त करती हैं कि मर कर ही कोई जीवित रह सकता है हमेशा।

एक कविता देखें –

जैसे पेड़ मर मर कर जीवित हो उठता है
जमीन पर गिरे हुए अपने बीजों में
उसी तरह मैं भी बार बार मरना चाहता हूँ
नयी जमीन में नए सिरे से उगने के लिए
मैं जानता हूँ कि मृत्यु का सामना करके ही
जीवित रह सकता हूँ हमेशा (पेड़)

कोई कवि अपनी कवि-परंपरा से ही जाना पहचाना जाता है। सुभाष राय उस कवि परंपरा की कड़ी हैं जिनकी कविताओं में आत्मचेतस उजाला है। सुभाष राय की कविता ‘जीने की समझ’ यह बताती है कि जीवन एक कविता में बदल सकता है।

विष्णु नागर पहले ही कह गए हैं: ‘जीवन भी कविता हो सकता है। इस नाम से उनका संग्रह भी है। कितनी अच्छी बात है कि ‘सुभाष राय भी जो कुछ रच रहे हैं, इसी विश्वास को दुहराते हुए कहते हैं: ‘यह कविता हो न हो पर इसके होने से जीवन एक कविता में बदल सकता है।‘ ‘सलीब पर सच’ लिखते हुए सुभाष राय ने अपने अंत:करण को मैला नहीं होने दिया है, यह कविता के हक़ में एक अच्छी बात है।

डा ओम निश्चल
——————-
सलीब पर सच, कवि : सुभाष राय, बोधि प्रकाशन, जयपुर,संस्करण 2018, मूल्य 120 रुपये।

(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें। आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं।)

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. AcceptRead More