10 मार्च: जब सावित्रीबाई फुले ने तोड़ी समाज की बेड़ियां, बजाया शिक्षा का बिगुल!

जब सावित्रीबाई फुले ने तोड़ी समाज की बेड़ियां, बजाया शिक्षा का बिगुल!

आज का दिन इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है, क्योंकि 10 मार्च को भारत की पहली महिला शिक्षिका और समाज सुधारक सावित्रीबाई फुले की पुण्यतिथि होती है. यह दिन हमें न केवल उनके संघर्षों को याद करने का अवसर देता है, बल्कि यह सोचने पर भी मजबूर करता है कि क्या हम उनके दिखाए मार्ग पर पूरी तरह चल पा रहे हैं ?
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे पाटिल और माता का नाम लक्ष्मीबाई था. सावित्रीबाई फुले को प्रारंभिक शिक्षा नहीं मिली थी, क्योंकि उस समय लड़कियों को पढ़ाने की परंपरा नहीं थी. लेकिन उनके पति ज्योतिराव फुले ने उन्हें शिक्षित किया.

भारत की बनी पहली प्रशिक्षित महिला शिक्षिका

उन्होंने बाद में पुणे के नॉर्मल स्कूल और अहमदनगर के एक संस्थान से शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त किया और भारत की पहली प्रशिक्षित महिला शिक्षिका बनीं. 1848 में, सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर भारत का पहला बालिका विद्यालय पुणे में खोला. शुरुआत में समाज ने उनका विरोध किया. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 18 से अधिक स्कूलों की स्थापना की तथा हजारों लड़कियों को शिक्षा से जोड़ा.
उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई.

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साहित्य और लेखन

सावित्रीबाई ने कविताओं और लेखों के माध्यम से समाज को जागरूक किया. उनकी प्रमुख रचनाएं थीं-
काव्य फुले (1854)
बावनकशी सुबोध रत्नाकर (1892)

महिला सशक्तिकरण और शिक्षा का संगम

संयोग से, मार्च का महीना महिलाओं के अधिकारों और सशक्तिकरण के लिए विशेष माना जाता है. 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के तुरंत बाद आने वाली 10 मार्च की तारीख हमें यह याद दिलाती है कि महिला अधिकारों की यह लड़ाई कोई नई नहीं है. सावित्रीबाई फुले ने उस दौर में लड़कियों की शिक्षा का सपना देखा, जब इसे पाप समझा जाता था. उनकी शिक्षा क्रांति ने एक ऐसा बीज बोया, जो आज एक वटवृक्ष बन चुका है.

क्या सच में हम उनके सपनों को साकार कर पाए हैं?

आज भले ही लड़कियों की शिक्षा पर पहले से अधिक ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन अब भी कई गांवों और छोटे कस्बों में बेटियों की पढ़ाई बाधित होती है.
सावित्रीबाई फुले ने जाति, धर्म और लिंग से ऊपर उठकर शिक्षा को सभी के लिए अनिवार्य बनाने की बात कही थी, लेकिन क्या आज भी हमारे समाज में हर वर्ग को समान अवसर मिल रहे हैं ?
बाल विवाह, दहेज प्रथा और लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दे अब भी मौजूद हैं, जो यह दर्शाते हैं कि उनके द्वारा शुरू की गई लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है.

महामारी सेवा और निधन

1897 में पुणे में प्लेग फैला. यह देख सावित्रीबाई फुले ने मरीजों की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. इस दौरान वे खुद प्लेग से संक्रमित हो गईं और 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया.
10 मार्च न सिर्फ सावित्रीबाई फुले की पुण्यतिथि है, बल्कि यह शिक्षा, समानता और सशक्तिकरण के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दोहराने का दिन भी है.