हेमंत शर्मा की इतवारी कथा, बापू -अखबारवाला
हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से... वह देश के जाने वाले पत्रकार है एवं TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है.
बापू ने देश को आजादी दिलवाई। उनकी शख्सियत बेमिसाल थी। उनके बारे में देश-दुनिया में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है मगर मैं यहां जिस बापू की बात कर रहा हू्ं, वह गुमनाम रहा। उसके बारे में लिखने का सौभाग्य मुझे ही हासिल है। इस बापू का आज़ादी की लड़ाई से दूर दूर तक कोई ताल्लुक नही था। मगर वो इस आज़ाद मुल्क की नब्ज़ पर हाथ रखता था और इस नब्ज़ के नीचे से गुज़रने वाली देश की हर छोटी, बड़ी घटना का हिसाब करता था। वह इन घटनाओं को अलग अलग अखबारों की शक्लों में सहेजकर हमारे दरवाजे तक ले आता था। वाकई गजब किरदार था उसका। कोई पहचान का मिल जाता तो उससे चिपक लेता।उसके कान में फुसफुसा कर कोई रोचक खबर बताता और जाते जाते उनके हाथ में दिल्ली का कोई अख़बार थमा देता।उसके व्यक्तित्व में इतना कौतुक था कि उससे जान छुड़ाना मुश्किल था। परम स्नेही, गजब का जिंदादिल। दिल्ली की राजनीति की सदाओं से लेकर सड़क पर झाड़ू लगाने वाली की अदाओं तक वह बेतकल्लुफ़ी से बातें करता था। पैदाईशी खबरी। उसे पूरे शहर की खबर रहती। था तो वह अख़बार का मामूली हॉकर पर हर किसी का दिमाग़ पढ़ लेने में उसे महारत हासिल थी।
‘बापू’ मेरा हॉकर था, मेरे लिए कोई चौदह पन्द्रह अखबार रोज लाता था। सरकारी दस्तावेजों में उसका नाम बृजेन्द्र सिंह दर्ज था। पढ़ा लिखा ज़्यादा नहीं था पर किसी पढ़े लिखे से ज़्यादा वाकफियत रखता था। तड़के वितरण केंद्र से अख़बार लेने और ग्राहकों को बॉंटने के बाद सुबह कोई आठ बजे के आसपास बापू हर रोज़ अपने घर लौटते वक्त मेरे घर से होकर जाता। उससे अख़बार में छपी खबरों पर चर्चा होती, शहर का हाल चाल होता। फिर बापू चाय पीते, कुछ खाते और चले जाते। बापू हॉकर यूनियन के पदाधिकारी भी थे । इसलिए उनकी दबंगई लखनऊ के सभी अख़बारों के सर्कुलेशन विभाग में चलती थी। थाना पुलिस से सम्पर्क उसका शौक़ था और अख़बार दफ़्तरों में होने वाली राजनीति की खबर रखना उसका शग़ल।
बापू वीणा को ढेर सारी पत्रिकाएँ भी पढ़ने के लिए दे जाता। पत्रिकाओं के कवर का मास्ट हेड फाड़ कर। तब मुझे समझ नहीं आता ऐसा वो क्यों करता है। बाद में पता चला कि फटे हुए मास्ट हेड वाली कतरन वह एजेंसी में वापस जमा कर देता। उसकी यह कारगुज़ारी पत्रिका की वापसी मानी जाती थी। बापू की इस सदाशयता से वीणा ढेर सारी पत्रिका मुफ़्त में पढ़ती थीं और बापू ने इसी रास्ते घर के किचन में अपनी आमदरफ्त भी बना ली थी।
बापू चलता फिरता अख़बार था। कृषकाय, फ़ौजी हेयरकट,हमेशा उतावली की साईकिल पर चढ़ा बापू सदर छावनी में रहता था। क्योंकि उसके परिवार में कोई फ़ौज में था। बापू साइकिल पर सवार आपको शहर में कहीं भी मिल सकता था। मिलते ही कान में कुछ न कुछ फुस-फुसा कर खबर देता और फिर सीधे आगे बढ़ जाता, बिना आपकी प्रतिक्रिया का इन्तज़ार किए। बापू अगर अख़बार न बांटता तो देश का चोटी का निशानेबाज होता। वह एक पांव पर साइकिल टिका, साइकिल पर बैठे बैठे ही घंटी बजाता और तीन मंज़िल ऊपर बालकनी या खिड़की में अख़बार को रॉकेट की तरह प्रक्षेपित कर देता। उसका निशाना अचूक था और याददाश्त बेजोड़। उसे हमेशा पता रहता था कि कौन सा अख़बार किसे देना है।अपने काम के प्रति गजब का सम्मान और हमेशा आसपास घटती घटनाओं पर कान। यह खूबी मैंने उससे ही सीखी।
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बापू मेरी पत्रकारिता से बहुत प्रभावित था पर जनसत्ता अख़बार से असंतुष्ट रहता था। वजह तब जनसत्ता सिर्फ़ आठ पेज का अख़बार होता था और उसका न्यूज़ प्रिंट भी वजन में दूसरे अख़बारों की तुलना में काफ़ी हल्का होता। इसलिए वह बहुत दूर तक फेंका नहीं जा सकता था।बापू जब भी किसी ग्राहक को जनसत्ता फेंकता, वह आधे रास्ते से लौट आता। इसे वह अपनी नाकामी समझता और झल्लाता। मुझसे अक्सर यही शिकायत करता कि भइया आप हल्के अख़बार में क्यों काम करते है। आप थोड़ा मोटे भारी भरकम अख़बार में काम किया करो ताकि उसे मैं पाठकों तक तो पहुँचा सकूँ। मैं बापू को आख़िर तक यह नहीं समझा पाया कि अख़बार अपने वजन से नही विचारों से भारी होता है।
संसाधनों के अभाव के बावजूद बापू सबका मददगार था। अक्सर सहकर्मी हॉकरों के लिए वह किसी न किसी से मारपीट कर लेता और शाम को थाने में होता। फिर उसे बाहर निकालने का उपक्रम करना होता। वह जब भी ऐसा करता, उस वक्त वह रसायनिक असर में होता। तब बापू मुझे देखते ही, फौरन आवाज़ लगाता, “भईया बताइए किसे ठीक करना है?” बापू बज्र स्वाभिमानी था। बातें किसी से भी हों, पूरी बराबरी से करता था। उसे कभी आप हरिशंकर तिवारी के यहॉं देख सकते थे तो कभी बीरेन्द्र शाही के यहॉं भी । दोनों अपराध और राजनीति में एक दूसरे के धुर विरोधी थे। पर बापू दोनों को साधकर रखता था।पुलिस,अपराधी और राजनीतिज्ञ बापू के तीन पसंदीदा वर्ग थे। लगता है उसे यह बात समझ में आ गयी थी कि हमारे लोकतंत्र के वर्गीय चरित्र में तीनों के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध हैं।
मुझे एक वाकया भूलता नहीं है। सुभाष मिश्र मेरे अनन्य मित्र थे। पिछले दिनों कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया। वे फ़ायनेंसियल एक्सप्रेस के राज्य संवाददाता थे। यह भी एक्सप्रेस समूह का ही अख़बार था। जनसत्ता, इण्डियन एक्सप्रेस और फ़ायनेंसियल एक्सप्रेस का दफ़्तर एक ही फ़्लैट में हुआ करता था।सुभाष को सरकारी मकान एलॉट हुआ।लखनऊ में पत्रकारों को सरकारी मकान मिल जाता था। सुभाष को जो मकान मिला,उस पर पड़ोस में रहने वाली किन्हीं महिला का क़ब्ज़ा था। वह भाजपा की कार्यकर्ता थीं। एलॉटटमेन्ट सुभाष के नाम था और ताला उन महिला का लगा था।सुभाष परेशान थे। वो एक रोज़ अख़बार पढ़ने जीपीओ सेन्टर पर आए। मैंने उनसे कहा आज शाम को हम आपके आवंटित फ्लैट पर आएँगे और वहीं उन महिला से निवेदन करेंगे कि जब एलॉटमेंट आपका है तो वे काहे को विवाद कर रही हैं। बापू हमारी और सुभाष की बात अन्यमनस्क हो सुन रहा था। अख़बार के बण्डल बांधते हुए उसका कान हमारी बातचीत की तरफ़ था। तय समय के मुताबिक़ हम मौक़े पर पंहुचे। सुभाष हमारा इन्तज़ार कर रहे थे।हम आपस में बात कर ही रहे थे तभी पचास साठ लोग साईकिल पर सवार डंडे के साथ आते दिखाई दिए। मैं अचंभित था। बापू उनका नेतृत्व कर रहा था। वो सब हॉकर थे। अख़बार बॉंट कर इधर ही कूच कर गए थे,भइया का काम करने।आते ही बापू चिल्लाया “भइया कौन सा ताला तोड़ना है।” मैंने बापू से अप्रसन्नता जताते पूछा कि तुम्हें किसने बुलाया? आप लोग कृपया वापस जाएं। इस भीड़ को देख बाक़ी फ्लैट के लोग खिड़कियों से झांकने लगे। वहॉं तनाव फैल गया, लगा कहीं हमला होना है। इतने लोगों को इकट्ठा देखकर उस महिला ने बिना कुछ कहे खुद जल्दी से ताला खोला और मौक़े से ग़ायब हो गयी। हमने किसी से बात भी नहीं की और काम हो गया। इस प्रकरण का ज़िक्र महज इसलिए कि बापू अपने परिचितों के लिए कितना ‘कन्सर्न्ड‘ रहता था। उसकी उपस्थिति मात्र से लम्बे समय का विवाद समाप्त हो गया।
बापू अख़बार बांटने को देशसेवा से कम नहीं समझता था। उसका मानना था कि ये काम बड़े बड़े लोगों ने किया है। “देश के राष्ट्रपति अबुल कलाम अपने जीवन यापन के लिए अख़बार बाँटते थे। बिजली के वल्ब के आविष्कारक थॉमस अल्वा एडिसन घर चलाने के लिए अख़बार बाँटते थे। तो भईया मैं भी किसी न किसी दिन ज़रूर बड़ा आदमी बनूंगा, बस आप अपना हाथ मेरे उपर रखे रहें। ”बापू ऐसे ही उलूल जुलूल बातों का उस्ताद था ।
अख़बार और पाठक के बीच हॉकर सबसे महत्वपूर्ण कड़ी होता है। सड़ी गर्मी ,कड़कड़ाने वाली ठंड और हाहाकारी बरसात में भी हॉकर हर रोज़ समय पर आपके दरवाज़े पर होता है। कोहरे की सर्द रातों में जब कुछ सुझाई नहीं देता था, बापू तड़के चार बजे घर से निकल लेता।हाथ मुँह धो, मौसम के मुताबिक़ कपड़े पहन ठिठुरती ठंड में साइकिल पर सवार हो बापू विधान सभा मार्ग के पायनियर सेन्टर पहुँचता। फिर वह वहीं दो बार अदरकी चाय डकारता। यहीं से हरिचंद , मुन्नू (हॉकर यूनियन के नेता थे) और बाकी न्यूज़पेपर हॉकरों के साथ उसका दिन शुरू होता। पूरी शिव की बारात थी यह। अख़बार के बंडल समेटते हुए बापू दूसरे हॉकरों के दुख दर्द सुनता, यूनियन के मसलों से लेकर दो चार साथियों की घरेलू प्रॉब्लम, वह सुबह सुबह ही चुटकियों में निपटा देता। अख़बारों के सर्कुलेशन मैनेजरों से त्योहारी, बोनस या फिर कोई और मांग पूरी करवाने की उनकी रणनीति इसी पायनियर सेंटर पर ही बनती थी। आदतन ही ऐसी बैठकों में बापू ज़ोरदार भाषण देता था। भाषण भी ऐसा जिसमे तंज़ और गालियां खुल्लम खुल्ला होती थीं।
वैसे तो लखनऊ में अख़बार के कई वितरण केन्द्र थे,पर दिल्ली से आने वाले अख़बार दोपहर में बंटते थे। उसके लिए एक ही जगह तय थी। जीपीओ पार्क के सामने पेट्रोल पम्प की सटे फुटपाथ से दिल्ली के अख़बार बंटते थे। यहीं हम दिल्ली में काम करने वाले सारे पत्रकार जमा होते थे। वहीं पटरी पर मुझे बैठा देखकर बापू दिल्ली के सारे अख़बार लाकर सामने रख देता। हम अख़बार पढ़ रहे होते, बापू अपने बंडल बॉंध रहा होता और साथ साथ उसकी रनिंग कमेन्ट्री चालू रहती। “फलां पत्रकार का आजकल फलां के साथ टांका भिड़ा है। कल भइया ( विनोद शुक्ल) ने फलां पत्रकार को दफ़्तर से निकाल दिया। फलां अखबार में आजकल संपादक जी किनारे कर दिए गए हैं।” बापू ऐसी खबरों का ‘कनफुकवा ब्राडकास्टर’ था।
स्कूल और कॉलेज के वक्त भी मेरे भीतर खबरों के संस्कार ऐसे ही एक हॉकर ने गढ़े थे। कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दौरान मैं हर शाम उन अख़बार वाले के पास फुटपाथ पर बैठ दिल्ली के सारे अख़बार पढ़ता था। वे मुझे अख़बार और पत्रिकाएँ देते मैं वही बैठ पढ़ कर उन्हें लौटा देता।क्यों कि तब इतने अख़बार ख़रीदने की हैसियत नहीं थी। मेरे भीतर खबरों के संस्कार गढ़ने वाले ये सज्जन थे सोमेश्वर नाथ द्विवेदी जी। वो मेरे हॉकर अभिभावक थे। खबरों की व्यापक समझ मुझे उनके साथ फुटपाथ पर बैठ अख़बार पढ़ने से ही बनी। चौक पर इण्डियन वॉच एण्ड ग्रामोफोन कम्पनी के ठीक सामने श्मशान गणेश मंदिर के बग़ल में वो फुटपाथ पर अख़बार और पत्रिकाएँ लगाते थे। शहर के जिन चार पांच जगहों पर दिल्ली के सारे अख़बार आते थे उनमें एक सोमेश्वर जी की दुकान भी थी। किसी जमाने में सोमेश्वर जी घरों में भी अख़बार पहुंचाते थे। पर बढ़ती उम्र के कारण बाद में वह घरों में अख़बार डालने का काम छोड़ अपनी दुकान पर ही बैठते थे। बहुत ही सख़्त और ब्राह्मणी आत्मसम्मान वाले सोमेश्वर जी अपने बुक स्टाल पर पत्रिकाएँ और अख़बार किसी को छूने नहीं देते थे।जो लोग बिना इजाज़त पत्र पत्रिकाएँ उलट पलट कर नीचे रखते, सोमेश्वर जी उन लोगों पर बरस पड़ते। उनके लिए उन्होंने एक डन्डा भी रखा था। गजब का आतंक था उनका, लोग डर डर के पत्रिकाएँ लेते थे उनसे।
सोमेश्वर जी देश की आज़ादी के सिपाही थे। आज़ादी की लड़ाई में वे ‘रणभेरी ‘ बाँटते थे। काम मुश्किल था। रणभेरी पर पुलिस की पाबन्दी थी। सरकार की नज़रें बचा बांटना होता था। कई बार पकड़े भी गए। सोमेश्वर जी पलामू
(बिहार) के रहने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। बनारस संस्कृत पढ़ने आए थे,पढ़े भी।फिर किसी मंदिर में पुजारी का काम भी किया, तभी आज़ादी की लड़ाई में उन्हें लोगों तक सूचनाएँ पहुँचाने का काम मिला। काम भा गया और वे पुजारी से हॉकर बन गए और पत्र-पत्रिकाओं के कारोबार में लग गए।
लेकिन मेरे प्रति सोमेश्वर जी का भाव हमेशा स्नेहिल था। मैं जैसे ही जाकर राजा कटरा की सीढ़ियों पर बैठता, वे दिल्ली के अख़बार और पत्रिकाएँ मेरी तरफ़ बढ़ा देते। मैं चुपचाप पढ़ कर उन्हें वापस कर देता। इसकी एक वजह यह भी थी की सोमेश्वर जी की दुकान के ठीक पीछे मेरे भाई साहब का कारोबारी कार्यालय था।जब तक आज अख़बार का सायंकालीन संस्करण निकला,वो लोगों के घरों पर भी अख़बार पहुँचाते थे। बाद में पैंसठ के आस पास चौक के राजाकटरा की सीढ़ियों को उन्होंने अपना न्यूज़पेपर स्टाल बनाया।
बापू और सोमेश्वर जी सदियों पुरानी उस परंपरा के प्रतिनिधि थे, जब १६०५ में अख़बार की शुरुआत यूरोप में हुई और अख़बार के हॉकर का नया पेशा नमूदार हुआ। भारत में पत्रकारिता की शुरुआत १७८० में बंगाल के ‘हिक्की गजट’ या ‘द कलकत्ता जनरल एडवटाईजर’ के ज़रिए हुई। इस देश में हिक्की गजट के ज़रिए हॉकर सार्वजनिक जीवन में दर्ज हुए।३० मई को कलकत्ते से जब पंडित युगल किशोर सुकुल ने ‘उदन्त मार्तंड’ निकाला तो इसके वितरण में कम्पनी सरकार ने अड़ंगा लगाया क्योंकि यह अख़बार व्यवस्था विरोधी था। कम्पनी सरकार ने दूसरे अख़बारों को तो डाक की सुविधा दी पर ‘उदन्त मार्तंड’ को यह सुविधा नहीं मिली। लिहाज़ा ‘उदन्त मार्तण्ड’ को अपने लिए ख़ुफ़िया हॉकर रखने पड़े थे। देश की आज़ादी और फिर उसके बाद इंदिरा गॉंधी की इमरजंसी में छपने वाले स्वतंत्रचेता अख़बारों को ख़ुफ़िया हॉकर ही बॉंटते थे।बापू को देखकर मुझे अक्सर ही हॉकरों के इस गौरवशाली इतिहास की याद आती।
बापू की एक और खासियत थी। जनसम्पर्क में उसका कोई जवाब नहीं था। वह वापसी वाले अख़बारों और कॉम्प्लीमेंट्री कॉपियों को फ्री में कुछ चुनिंदा अफसरों को सुबह सुबह बांट देता था। इस फेहरिस्त में कुछ पुलिस इंस्पेक्टर, सीओ और थानेदार भी होते।निजी चैनल तब बाजार में नहीं आये थे, इसलिए अखबारों की अपनी अहमियत थी और बापू ने इन्ही अखबारों के ज़रिये, एसपी, डीएम और यहाँ तक कि मंत्री विधायकों तक पैठ बना ली थी। शाम के वक़्त बापू अक्सर ही हज़रतगंज के तत्कालीन सीओ राजेश पांडेय के दफ्तर में बैठकर सीओ साहब के साथ चाय पीते मिल जाते थे। उस दौर के एसपी अनिल रतूड़ी को दिल्ली के अखबारों का शौक था, सो बापू खुद इंडियन एक्सप्रेस और ट्रिब्यून की प्रति लेकर एसपी साहब के दरबार में हाज़िर रहते थे। कई बार जो ख़बरें और किस्से अखबार में नहीं छपते थे वो बापू की ज़ुबान पर होते थे। अक्सर पुलिस अफसरों को उनके मतलब की ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बापू से ही मिलती। माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव से लेकर अन्ना और बक्शी- भंडारी से लेकर सूरज पाल तक के कारनामे बापू को रटे हुए थे। शायद यही वजह थी कि शहर के कई नए नवेले क्राइम रिपोर्टर, बापू को मुफ्त की चाय पिलाने लगे थे। कुछ एक तो बापू पर ऐसे भी फ़िदा हुए कि अक्सर शाम को उसे बोतल पकड़ा देते। बदले में बापू उनकी ख़बरों में कुछ न कुछ’ वैल्यू एडिशन’ कर देते।
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पुलिस और क्राइम रिपोर्टरों के बीच उठने बैठने से, बापू ने हॉकरों में अपनी थोड़ी हनक बना ली थी। किसी को अस्पताल में भर्ती कराना हो, किसी की थाने में रपट लिखानी हो, या फिर किसी के बच्चे का स्कूल में एडमिशन हो, बापू हॉकरों को छोटे मोटे हक़ दिलाने में हमेशा आगे रहा। वैसे उन दिनों हॉकरों का यूनियन शहर के टैक्सी या टेम्पो यूनियन से कहीं ज्यादा मज़बूत थी। वजह कि अगर हॉकर हड़ताल कर दें तो शहर बेखबर हो जाय।कर्फ्यू के दौर में तो हॉकरों की अपनी धमक रहती थी। बापू सबको पास दिलाने में अपनी नेतागिरी चमका लेते थे। लखनऊ के डीएम अशोक प्रियदर्शी उसे नाम से जानते थे। बापू के लिए इतना ही बहुत था।
बापू के ठौर ठिकाने फिक्स से थे। उसकी सुबह अगर पायनियर पर गुजरती, तो दोपहर हज़रतगंज के रंजना पेट्रोल पम्प वाले सेन्टर पर। दोपहर की उसकी जमघट में क्राइम रिपोर्टर की जगह अधिकतर राजनैतिक रिपोर्टर और राष्ट्रीय अखबारों के ब्यूरो चीफ होते थे। बापू का उनमें भी खूब दखल था। जब मैं दिल्ली आ गया तो बापू से सम्पर्क उतना जीवन्त नहीं रहा। एक रोज़ बापू का फ़ोन आया। कराहती आवाज़ में। आवाज़ पहचानी नहीं जा रही था। बापू दर्द से तड़प रहा था। बातचीत में पता चला उसे फेफड़े का कैन्सर है। बापू बस इतना चाहता था कि मैं उससे आख़िरी बार मिल लूँ। यह मेरे लिए झटका था क्योंकि बापू मुझसे उम्र में छोटा था। मैं एक दो रोज़ परेशान रहा फिर लखनऊ पहुंचा। एयरपोर्ट से सीधे बापू के घर। मुझे देखकर बापू क़ी आँखों की चमक देखते बनी थी। बापू पुरानी स्मृतियों में डूब गया। अतीत की यादों ने उसके दर्द को कम कर दिया था। बापू को मालूम था, वक्त उसके पास कम है। काफ़ी देर बाद मैं लौट तो आया पर मन वहीं रह गया था। चार पॉंच रोज़ बाद खबर आई कि खबर बांटने वाला बापू खुद खबर बन गया। मुझे संतोष था कि बापू जो मुझसे कहना चाह रहा था, उसे मैंने सुन लिया था।
इस कोरोना काल में भी हॉकर जान पर खेल अख़बार पंहुचाते रहे। ऐसे में बापू रोज याद आया । बापू अगर होता तो कोरोना के दौर की तमाम चिंताओं को अखबारों के बीच लपेटकर दूर फेंक देता। उसे हमेशा से वज़नी अखबार की तलाश थी। उसकी यादों का वज़न आज मेरे लिए बहुत भारी है।
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