गणेश शंकर विद्यार्थी: पत्रकारिता का वह नायक, जिसने कलम से शासन हिलाया

गणेश शंकर विद्यार्थी: पत्रकारिता का वह नायक, जिसने कलम से शासन हिलाया

शब्दों की धार तलवार से तेज़ होती है, यह कहावत तब चरितार्थ होती है जब हम गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन को देखते हैं. वह पत्रकार नहीं, बल्कि क्रांति के अग्रदूत थे, जिन्होंने अपनी लेखनी से अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव हिला दी और समाज के दबे-कुचले वर्गों की आवाज़ बने. आज़ादी की लड़ाई में जब लोग हथियार उठा रहे थे, तब उन्होंने अख़बार को हथियार बना दिया, लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ़ ब्रिटिश सत्ता तक सीमित नहीं था. उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी.

बचपन से संघर्ष का बीज

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) के अतरसुइया मोहल्ले में हुआ. उनके पिता जयनारायण श्रीवास्तव ग्वालियर रियासत में शिक्षक और माता गोमती देवी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. पिता की नौकरी के कारण विद्यार्थी जी का बचपन मध्य प्रदेश के मुंगावली में बीता.

बचपन से ही वह अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में निडर थे. आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी. मगर सरकारी शिक्षा प्रणाली में अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रभाव ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया. उसी दौरान उन्होंने स्वामी विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी के विचारों को पढ़ा, जिसने उनके जीवन को एक नया उद्देश्य दिया.

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जब कलम ने तलवार से ज्यादा चोट पहुंचाई

विद्यार्थी जी को पत्रकारिता से गहरा लगाव था. लेकिन वह केवल ख़बरें लिखने वाले पत्रकार नहीं थे, बल्कि समाज को दिशा देने वाले युगद्रष्टा थे. उन्होंने 9 नवंबर 1913 को ‘प्रताप’ नामक अख़बार की स्थापना की, जो जल्द ही ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ क्रांति की आवाज़ बन गया.

‘प्रताप’ ने किसानों, मजदूरों और शोषितों की आवाज़ को ताकत दी. उन्होंने अपने अख़बार में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों का समर्थन किया.
उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उनकी कलम कभी रुकी नहीं.

आजादी की लड़ाई में भूमिका

गणेश शंकर विद्यार्थी सिर्फ़ पत्रकार ही नहीं, बल्कि सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी भी थे.
उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
1920 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने और ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ जन आंदोलन चलाए.
ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ सत्याग्रह और अहिंसा के हथियार को अपनाया.
क्रांतिकारियों को समर्थन देने के कारण अंग्रेज़ों ने ‘प्रताप’ का प्रकाशन कई बार बंद करा दिया.

सांप्रदायिक दंगों के दौरान वीरगति

25 मार्च 1931 को कानपुर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे. जब लोग हिंसा और उन्माद में थे, तब विद्यार्थी जी अपने जीवन की परवाह किए बिना भीड़ को रोकने के लिए सड़कों पर निकल पड़े.
भीड़ को शांत करने के प्रयास में उन पर हमला हुआ, और वह शहीद हो गए. यह विडंबना थी कि जिसने पूरी ज़िंदगी सत्य, अहिंसा और एकता का संदेश दिया, वही सांप्रदायिकता की आग में झुलस गया.

गणेश शंकर विद्यार्थी की विरासत

उनका बलिदान यह साबित करता है कि पत्रकारिता सिर्फ़ ख़बर देने का माध्यम नहीं, बल्कि समाज सुधार का एक शक्तिशाली हथियार भी हो सकता है.
वह उन चंद पत्रकारों में से थे जिन्होंने अपनी जान दांव पर लगाकर सच की आवाज़ बुलंद की.
आज भी जब पत्रकारिता सत्य और नैतिकता से भटकती है, तब विद्यार्थी जी जैसे नायक हमें याद आते हैं.
भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया और कई पत्रकारिता पुरस्कार उनके नाम पर दिए जाते हैं.