Caste Census: भारत में जाति जनगणना का मुद्दा एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. मोदी सरकार ने कैबिनेट में फैसला लेते हुए जाति जनगणना कराने का फैसला लिया है. देश में काफी समय से जाति जनगणना की मांग चल रही थी जिसको लेकर अब मोदी सरकार ने हरी झंडी दे दी है. इस एलान के बाद पूरे देश में राजनीति हलचल तेज हो गई है. विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है. उसका तर्क है की कांग्रेस और समाजवादीपार्टी काफी समय से इसकी मांग कर रही थी.
अब सवाल यह उठ रहा है कि, जाति जनगणना का मतलब क्या है और अब इसकी जरूरत क्यों पड़ी?…
जाति जनगणना का मतलब क्या?…
जाति जनगणना का सीधा मतलब होता है,व्यक्तियों की जाति के आधार पर आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया. खासकर भारत जैसे देश में, जहां जाति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना का अभिन्न हिस्सा रही है, ये आंकड़े विभिन्न समुदायों की जनसांख्यिकी, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और प्रतिनिधित्व को समझने में मदद करते हैं. इनका उपयोग आरक्षण नीतियों, सामाजिक न्याय कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं को तैयार करने में किया जा सकता है.
जाति जनगणना का इतिहास…
गौरतलब है कि जाति जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश काल से हो गई थी. पहली बार साल 1881 में जनगणना हुई थी जो निरंतर हर दशक चलती रही और 1931 तक हुई. लेकिन 1931 में जाति आधारित जनगणना हुई क्यूंकि अंग्रेजों के समय में वैसे भी हिन्दुतान के लोगों को जाति के आधार पर देखा जाता था. तब के समय में जनगणना आम बात थी लेकिन बाद में निर्धारित किया गया कि हर दशक जनगणना होगी . उसके बाद साल 1941 में जनगणना हुई और बाद में उसके आंकड़े सामने नहीं रखे गए.
1951 स्वतंत्र भारत में जनगणना…
बता दें कि उसस्के बाद आजाद भारत में साल 1951 में जनगणना हुई. उस समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) को छोड़कर अन्य जातियों की गणना बंद कर दी. सरकार का मानना था कि जाति पर जोर देने से सामाजिक विभाजन बढ़ेगा और राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचेगा. ऐसा साल 2011 तक चलता रहा लेकिन SC, ST के अलावा किसी के बारे में कोई जानकारी सामने नहीं आई.
जाति जनगणना की जरूरत क्यों?…
बता दें कि, साल 1980 में जब मंडल कमीशन लागू हुआ था. तब कहा ज्ञाता कि देश में OBC की आबादी 52 फीसद है. तब वीपी सिंह की सरकार ने 1931 की जनगणना का आधार बताया था. तब से लेकर अब तक ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की व्यवस्था की, जिससे जाति गणना की मांग फिर से तेज हुई. सटीक जातिगत आंकड़ों की कमी ने ओबीसी की पहचान और उनकी आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल बना दिया.
जाति जनगणना क्यों रोकी गई थी?
अब सवाल यह भी है आखिर जाति जनगणना क्यों रोकी गई थी. तो इसके पीछे कई कारण दिए गए…
# नेहरू सरकार का मानना था कि जाति पर जोर देने से सामाजिक एकता कमजोर होगी और जातिगत विभाजन को बढ़ावा मिलेगा.
# जातियों की विविधिता और क्षेत्रीय विभिन्नताओं के कारण जातिगणना को व्यवस्थित करना चुनौतीपुर्ण था.
# कहा जा रहा है कि स्वतंत्र के बाद देश के नेताओं ने जाति आधारित नहीं बल्कि देश के लिए समावेशी राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देने की कोशिश की.
जाति जनगणना अब क्यों जरूरी?…
कहा जा रहा है कि,हाल के दशकों में सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और राजनीतिक मांगों ने जाति गणना को फिर से प्रासंगिक बना दिया है. इसके प्रमुख कारण हैं…
सामाजिक न्याय की आवश्यकता: सटीक जातिगत आंकड़े शिक्षा, नौकरियों और अन्य क्षेत्रों में आरक्षण नीतियों को प्रभावी बनाने में मदद कर सकते हैं. हाशिए पर पड़े समुदायों की पहचान और उनके उत्थान के लिए यह जरूरी है.
नीतिगत सुधार: ‘पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा के अनुसार, जाति जनगणना शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में असमानताओं को उजागर करने और समावेशी नीतियां बनाने में महत्वपूर्ण है.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व: जातिगत आंकड़े राजनीतिक दलों को विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधित्व को समझने और चुनावी रणनीतियों को नया रूप देने में मदद कर सकते हैं.
राज्य-स्तरीय मांगें: बिहार जैसे राज्यों के सर्वेक्षणों ने जाति गणना की उपयोगिता को रेखांकित किया है, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर इसकी मांग बढ़ी है.
सामाजिक-आर्थिक असमानताएं: जाति अभी भी भारत में अवसरों और संसाधनों तक पहुंच को प्रभावित करती है. आंकड़ों के अभाव में लक्षित नीतियां बनाना मुश्किल है.
जाति जनगणना से हो सकते हैं यह प्रभाव…
नीतिगत सुधार: यह आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं को अधिक प्रभावी और लक्षित बनाने में मदद करेगा.
राजनीतिक रणनीति: जातिगत आंकड़े दलों की चुनावी रणनीतियों को प्रभावित कर सकते हैं, क्योंकि वे विभिन्न समुदायों का समर्थन हासिल करने की कोशिश करेंगे.
सामाजिक प्रभाव: कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह जातिगत पहचान को और मजबूत कर सकता है, जिससे सामाजिक विभाजन बढ़ सकता है. दूसरी ओर, यह हाशिए पर पड़े समुदायों को मुख्यधारा में लाने में मदद कर सकता है.
शासन में बदलाव: सटीक आंकड़े शासन को अधिक समावेशी और डेटा-आधारित बना सकते हैं.
क्या है जाति जनगणना में चुनौतियाँ…
कहा जा रहा है कि सरकार की यह एक महत्पूर्ण पहल है लेकिन इसकी कुछ चुनौतियाँ है. भारत में हजारों जातियों और उपजातियों के कारण वर्गीकरण और मानकीकरण जटिल हो सकता है. कुछ लोगों का कहना है कि, इससे सामाजिक तनाव बढ़ सकता है और जातिगत पहचान मजबूत हो सकती है.फिर भी, सावधानीपूर्वक इन चुनौतियों को अवसरों में बदला जा सकता है, जो सामाजिक समावेशन और नीतिगत सुधारों को बढ़ावा देगा.