पति की अचानक मौत भी नहीं रोक पाई इनकी उड़ान, ले आईं इस क्षेत्र में क्रांन्ति

चार वर्ष पहले सोते समय दिल का दौरा पड़ने की वजह से संध्या के पति का आकस्मिक निधन हो गया था। उनका असमय जाना उनके और पूरे परिवार के लिये न सिर्फ बहुत बड़ा नुकसान था बल्कि बिल्कुल अप्रत्याशित भी था।

स्वयं को दुखों के भंवर से उबारते हुए संध्या चेरियन नारी शक्ति का एक प्रतीक बनकर उभरी हैं और वर्तमान में वे फ्रंटियर मेडिवेल के उपाध्यक्ष पद को संभालने के अलावा फ्रंटियर लाइफलाइन हॉस्पिटल और डा. केएम चेरियन हार्ट फाउंडेशन के निदेशक के पद पर सुशोभित हैं और उन्हें इस बात की बेहद प्रसन्नता है कि उनका काम और उनकी बेटियां उन्हें हरसमय व्यस्त रखते हैं।

अमरीका छोड़कर चेन्नई वापस लौटने का किया फैसला

संध्या कहती हैं कि ‘हमें इस सत्य को स्वीकारने और अपने जीवन को आगे बढ़ाने के लिये तैयार होने में कुछ समय लगा। मुझे महसूस हुआ कि इस समय मेरे बच्चों के लिये भारत में रह रहे परिवार के अन्य सदस्यों के साथ समय बिताना अधिक महत्वपूर्ण है, इसलिये मैंने दो वर्ष पूर्व अमरीका छोड़कर चेन्नई वापस लौटने का फैसला किया।’

फ्रंटियर लाइफलाइन हॉस्पिटल की नींव

वर्तमान में वे फ्रंटियर लाइफलाइन हॉस्पिटल जो कि एक हृदय सुपर स्पेशियलिटी सेंटर है और एक बायो-विज्ञान पार्क के रूप में जाने-माने फ्रंटियर मेडिवेल के प्रशासनिक कार्यों को देखने में अपने पिता का हाथ बंटा रही हैं। संध्या कहती हैं, ‘भारत में रहने वाले अधिकतर लोग महंगी सर्जरी का खर्च उठाने में नाकामयाब होते हैं, क्योंकि इंप्लांट होने वाले उपकरणों, उपभोग्य और डिस्पोजेबल के दाम बहुत अधिक होते हैं और हर कोई उन्हें वहन नहीं कर सकता। हमने इस समस्या को एक चुनौती की तरह लिया और कम दाम में इंप्लांट होने वाले उपकरणों के निर्माण की दिशा में शोध का काम प्रारंभ किया। और इस तरह से फ्रंटियर लाइफलाइन हॉस्पिटल की अनुसंधान शाखा की नींव पड़ी और यही फ्रंटियर मेडिवेल को प्रारंभ करने के पीछे की मुख्य विचारधारा है।’

विधवा महिला के सामने आने वाली चुनोतियों का चला पता

अमरीका से वापस भारत लौटने पर उन्हें यहां पर एक युवा विधवा महिला के सामने आने वाली चुनौतियों और उसके जीवन की कठोर वास्तविकताओं का पता चला। जो लोग अबतक उनके साथ काफी मित्रवत रहते थे और उन्हें और अपने परिवार को में आयोजित होने वाले विवाह इत्यादि के समारोहों में आमंत्रित करते थे, उन्होंने उनसे दूरी बना ली और उन्हें एक प्रकार से सामाजिक अलगाव का सामना करना पड़ा। उनके लिये सबसे बद्तर वह क्षण होता जब समाज के प्रबुद्ध लोगों में गिने जाने वाले उन्हें देखकर कहते-‘तुम तो देखने में विधवा भी नहीं लगती हो।’

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क्या कहती हैं संध्या

संध्या कहती हैं कि ‘यह बहुत कुछ ऐसा था कि जैसे लोगों को यह लगता हो कि मैं विधवा होते ही तुरंत एक पुरानी डायन में तब्दील हो गई हूं! लेकिन परेशानियां सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुईं। मुझे लगता है कि हम अभी भी ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां विधवा को अपशकुन माना जाता है! पहले पहल तो मुझे इन बातों का बहुत दुःख होता था लेकिन अब कोई फर्क नहीं पड़ता और ऐसी घटनाओं ने मुझे अपने सच्चे शुभचिंतकों और दोस्तों को पहचानने में सफलता दी है। निश्चित रूप से इन अनुभवों ने मुझे बदलते हुए मेरे व्यक्तित्व को एक नया आकार दिया है और बीते कुछ वर्षों के दौरान मैं पहले से अधिक दृढ़-निश्चयी बनने में सफल रही हूं। मैं दूसरी विधवा महिलाओं को भी हर हालात में मजबूत बने रहने का संदेश देना चाहूंगी। वक्त बड़े से बड़े घाव को भर देता है और एक जटिल सामाजिक जीवन समय के साथ वापस ढर्रे पर आ जाता है।’

विज्ञान की छात्रा थीं संध्या

चूंकि उनके माता-पिता दोनों ही स्वास्थ्यसेवा के क्षेत्र में कार्यरत थे इसी वजह से संध्या ने अपनाा काफी समय अस्पतालों में बिताया था और आज भी वे काम में सामने आने वाली चुनौतियों से दो-दो हाथ करने में काफी आनंद महसूस करती हैं। उनके पिता एक हृदय रोग विशेषज्ञ थे और संध्या विज्ञान की अच्छी छात्र थीं और ऐसे में उन्हें इस बात की पूरी उम्मीद थी कि वे भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने में कामयाब रहेंगी।

पिता नहीं चाहते थे चिकित्सा क्षेत्र में आए

लेकिन बदकिस्मती से उनके पिता नहीं चाहते थे कि वे चिकित्सा के क्षेत्र में आयें, क्योंकि उनका मानना था कि चूंकि महिलाओं को एक ही समय में अपने व्यवसायिक जीवन और पारिवारिक जीवन के बीच संमंजस्य बैठाना होता है, इसलिये वे चिकित्सा के पेशे के साथ समुचित न्याय नहीं कर पाएंगी। ‘इसी वजह से मैं अपनी पसंद के पेशे से संबंधित पढ़ाई नहीं कर पाई। आजकल की पीढ़ी के बच्चों के विपरीत जो अपना जीवन अपनी शर्तों के अनुसार जीते हैं, मेरे अंदर उस समय इतना साहस नहीं था कि मैं इस फैसले का विरोध कर सकूं और जो मुझसे जो कुछ करने को कहा गया मैंने करने के लिये हामी भी दी।’उनके पास मौजूद विकल्पों में बायोमेडिकल इंजीनियरिंग उनकी पसंद के सबसे करीब था और उन्होंने इसके साथ आगे बढ़ने का फैसला किया।

पिता ऑस्ट्रेलिया जाने वाले प्रारंभिक प्रवासियों में

उनके पिता ऑस्ट्रेलिया जाने वाले प्रारंभिक प्रवासियों में से एक थे, जहां से वे बाद में न्यूज़ीलैंड चले गए और इस प्रकार संध्या ने अपने प्रारंभिक वर्ष इन दो देशों में बिताए। वहां से वापस आने पर उनका परिवार चेन्नई में बस गया और उन्होंने ग्युइंडी की अन्ना यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग में स्नातक पूरा किया। इसके अलावा वे टेक्सास विश्वविद्यालय से बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में मास्टर्स करने के साथ अस्पताल प्रशासन, क्लीनिकल रिसर्च और फामार्कोविजिलेंस में स्नातकोत्तर भी कर चुकी हैं।

पीजी के बाद हुई शादी

वर्ष 1995 में परस्नातक करने के दौरान ही वे विवाह के बंधन में बंधा गई और उन्होंने कुछ वर्षों के लिये द मद्रास मेडिकल मिशन के साथ काम किया। इसके बाद वे अपपने पति के साथ बहरीन चली गईं और वर्ष 2004 तक वहां रहने के बाद उन्होंने अपने परिवार के साथ अमरीका का रुख किया।

लड़कियों को शिक्षित करने का कर रही हैं काम

संध्या को भले ही अपनी पसंद का करियर चुनने का मौका न मिल पाया हो, लेकिन उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके बच्चों को अपनी पसंद का करियर चुनने की आजादी मिले। इसके अलावा वे अपने बच्चों के साथ इलावूर में अपने पिता के नाम पर खोले गए ट्रस्ट के अंतर्गत स्थानीय लड़कियों को शिक्षित करने का काम भी कर रही हैं।

360 एकड़ में फैला फ्रंटियर मेडिवेल

फ्रंटियर मेडिवेल चेन्नई से 40 किलोमीटर दूर तिरुवल्लूर जिले के इलावूर गांव में 360 एकड़ में फैला हुआ है। यह स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुसंधान और अनुबंध अनुसंधान आउटसोर्सिंग गतिविधियों के कामों को एक ही स्थान पर संचालित करने वाले गंतव्य के रूप में विकसित किया गया है।

ग्रामीण इलाकों में सामाजिक और आर्थिक उत्थान का दे रहा है प्रशिक्षण

एक लड़की को शिक्षित करना एक परिवार को शिक्षित करने के बराबर है और आज सशक्त हुई एक लड़की भविष्य में एक पूरे परिवार को सशक्त करेगी और इसके फलस्वरूप कल पूरे देश को। इसीी विचार से प्रेरित होकर फ्रंटियर मेडिवेल अपने सीएसआर (निगमित सामाजिक दायित्व) के एक भाग के रूप में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिये उन्हें ज्ञान और प्रशिक्षण देता है। इनके विभिन्न कार्यक्रम ग्रामीण महिलाओं को शिक्षित करने के अलावा उनके लिये रोजगार के अवसर भी प्रदान करवाने का काम करता है।

21 लड़कियां पा चुकी हैं निःशुल्क शिक्षा

इनका एजुकेशनल ट्रस्ट इलावूर में वर्ष 2007 के बाद से अबतक वंचित तबके की सिर्फ माताओं के सहारे पलने वाली 21 लड़कियों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान कर चुका है। नर्सरी से लेकर माध्यमिक स्तर तक इनकी ट्यूशन फीस, परिवहन, किताबें, वर्दी और अन्य सभी शैक्षिक आवश्यकताओं का वहन इस ट्रस्ट के द्वारा उठाया गया। संध्या कहती हैं, ‘हमारा यह कार्यक्रम अब अपने सकारात्मक परिणाम दिखा रहा है और ये लड़कियां अब अपनी माताओं को सशक्त बनाने में मदद कर रही हैं।’

आगे बढ़ रही हैं लड़कियां

संध्या बड़े उत्साह के साथ इस गांव की लड़कियों में आये बदलाव के बारे में बात करती हैं। फ्रंटियर मेडिवेल में बेहद गरीब परिवारों की 6 लड़कियों को चयनित किया। गांव में रहने के दौरान ही इन लड़कियों ने अपनी दसवीं और बारहवीं की परीक्षा पास की और इसके बाद इन्हें बायोटेक्नोलॉनी, टिशू इंजीनियरिंग और नैने कोटिंग तकनीक में प्रशिक्षित किया गया जिनमें बहुत अधिक स्वच्छता और जीवाणुरहिणता की आवश्यकता है। इन चयनिक लड़कियों को निःशुल्क भोजन और आवास के अलावा मासिक छात्रवृति भी उपलब्ध करवाई गई। बाद में इन लड़कियों को फ्रंटियर मेडिवेल के साथ स्थाई कर्मचारी के रूप में जोड़ लिया गया। आज ये लड़कियां स्वतंत्र हैं और अपने पैरों पर खड़े होने के साथ दूसरी लड़कियों के लिये रोल मॉडल हैं। ‘आज जब गांव में रहने वाली अन्य लड़कियां इन्हें स्कूटी चलाकर अपने काम पर जाते हुए देखती हैं तो वे भी इनकी तरह कुछ करने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित होती हैं।’

खुद को मजबूत बना रही हैं संध्या

संध्या आगे कहती हैं, ‘मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती अब अकेले अपने बच्चों का लालन-पालन करने की है। कई बार काम और घर के बीच सामंजस्य बैठाना और उसी दौरान दो बच्चों को पालना बहुत भारी हो जाता है।’कई बार वे खुद के बहुत थका हुआ महसूस करती हैं और ऐसे में उनके पास अन्य कामों के लिये बहुत कम ऊर्जा और समय बचते हैं।‘कई बार मैं यह सोचती हूं कि मेरे सामने दो बेटियों को पढ़ाने के साथ उन्हें स्वतंत्र जीवन जीने के लिये प्रेरित करने और फिर उनकी शादी करने का एक बहुत चुनौतीपूर्ण काम है। लेकिन फिर मैं खुद को समझाती हूं कि मैं यह सफलतापूर्वक कर सकती हूं और अपने कामों में लग जाती हूं। मैं अपनी बेटियों के लिये सबसे बेहतर यही कर सकती हूं कि उन्हें मजबूत और संसाधनों से पूरपूर्ण होना सिखा सकूं।’

संध्या के पिता उनके लिये सबसे बड़े प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। वो कहती हैं कि ‘मैंने उन्हें जीवन के सबसे खराब समय में भी देखा है और फिर उन्होंने 60 वर्ष कर उम्र में खुद को दोबारा पुर्नजीवित किया और सफलता के नए मुकाम पाए।’ इसके अलावा उनके बच्चे भी उन्हें प्रेरित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ‘‘वे मेरी दुनिया हैं और वे ही मुझे एक बेहतर इनसान बनने की प्रेरणा देते हैं।’