दुर्गोत्सव – मित्रा परिवार ने काशी को दिया था शक्ति की आराधना का मंत्र
बनारस में दुर्गा पूजा की शुरुआत करने का श्रेय....
शक्ति की आराधना के बिना शिव की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती है. कुछ ऐसी ही कहानी है दुर्गा पूजा की. दुर्गा पूजा का गढ़ भले ही कोलकाता है, लेकिन दुर्गोत्सजव के दौरान काशी में भी मिनी बंगाल का माहौल बन जाता है. बनारस में दुर्गा पूजा की शुरुआत करने का श्रेय भी बंगाली परिवार को ही जाता है. यहां के मित्रा परिवार ने ही शारदीय नवरात्र में काशी को शक्ति की आराधना का मंत्र दिया था, जिसका प्रभाव आज देखने को मिलता है.
250 वर्ष पूर्व रोपे गए बीज ने लिया वट वृक्ष का रूप
काशी में बंगाल के मित्रा परिवार ने ही काशी में दुर्गा पूजा के परंपरा की नींव डाली थी. 250 वर्ष पहले रोपा गया यह बीज वटवृक्ष का स्वरूप ले चुका है और स्थिति यह है कि जिलेभर में 500 अधिक प्रतिमाएं स्थापित होती हैं. पूजा समिति के लोग गंगा की मिट्टी से ही माता की प्रतिमा, गणेश, कार्तिकेय और भगवान राम की प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं. शारदीय नवरात्र की षष्ठी तिथि से ही शहर के सभी पूजा पंडालों में मां दुर्गा सपरिवार विराजमान होती हैं. खास तौर से बंगीय पूजा पंडालों में मूर्तियों के पहुंचने के साथ ही पुरोहितों ने घट स्थापन और बोधन, आमंत्रण व अधिवास आदि अनुष्ठान कराया जाता है. गली-मोहल्लों में दिन भर ढाक के डंके की गूंज सुनाई देने लगती है. शाम ढलते ही शहर में साज-सज्जा के रूप में त्योहार के इंद्रधनुषी रंग भी बिखरने लगता है.
इस संस्था ने की थी शुरूआत
वाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी (वीडीएस) नाम की संस्था ने इसकी शुरुआत की थी. इसमें खास तौर पर काशीराज प्रभु नारायण सिंह उस समय मौजूद थे. कई साल के बाद इस पूजा को पांडेय हवेली के सीएम एंग्लो बंगाली प्राइमरी पाठशाला में किया जाने लगा और तब से लेकर आज तक यहीं पर मां दुर्गा की पूजा पूरे विधि विधान के साथ होती है.
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नवरात्र की षष्ठी पर मां की प्रतिमा पूजा पंडाल में आने के बाद से इनका गहनों से श्रृंगार होता है. मां के साथ गणेश जी, कार्तिकेय, मां लक्ष्मी, मां सरस्वती आदि का भी गहने से ही शृंगार किया जाता है.
बैंक लाकर में रखे जाते हैं श्रृंगार के गहने
नवरात्र खत्म होने के बाद ये गहने यूको बैंक के लॉकर में रख दिए जाते हैं. काशी की पहली पूजा समिति वाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी में मां को असली सोने-चांदी के गहनों से सजाया जाता है. मां के साथ अन्य विग्रहों का भी गहनों से ही शृंगार किया जाता है. नवरात्र की दशमी के बाद मां के ये गहने बैंक के लॉकर में रख दिए जाते हैं. इन गहनों में गले का हार, माला, कंगन, मांगटीका, पायल सब शामिल हैं. सम्मिलनी की ओर से बंगाली टोला इंटर कॉलेज में पूजा पंडाल स्थापित होता आ रहा है.
लेकिन बीत छह साल से मां का शृंगार असली गहनों से हो रहा है. पूजा समिति के अध्यक्ष देवाशीष दास व चेयरमैन पार्थ प्रतिम दत्ता ने बताया कि कोलकाता के एक परिवार ने ये गहने दान में दिए हैं. इस परिवार की कई पीढि़यां समिति की सदस्य रही हैं. बाद में अन्य भक्तों ने भी दान किए. अब उन्हीं गहनों से मां का शृंगार किया जा रहा है.
बंगला विधि से होती है पूजा
देवाशीष दास ने बताया कि बनारस के अन्य पूजा पंडालों की पूजा बंगला विधि से होती है. कोलकाता से ढाक वाद्ययंत्र मंगाए जाते हैं. छह ढाकिया छह दिनों तक यहां रहते हैं. तीन दिनों तक भोग प्रसाद भक्तों में वितरण होता है. इसके अलावा दुर्गा पूजा पर आधारित ही प्रतियोगिताएं और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं.
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काशी नरेश के शागिर्दों ने की थी स्थापना
वाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी की स्थापना काशी नरेश के शार्गिदों ने की थी. पूजा समिति के अध्यक्ष देवाशीष दास और चेयरमैन पार्थ प्रतिम दत्ता ने बताया कि काशी नरेश के सचिव सहित अन्य पदों पर कार्य करने वाले पूर्णेंदु भट्टाचार्य, मंजूदास गुप्ता, प्रीति विश्वास, एके राय चौधरी सहित 20 सदस्यों ने सन 1922 में कैंटोमेंट में इस पूजा समिति की स्थापना की थी.
दो साल बाद यानी 1924 से पंडाल बंगाली टोला इंटर कॉलेज में लगने लगा. अभी इस समिति में 120 पदाधिकारी व सदस्य मौजूद हैं. संस्था के वाइसप्रेसिडेंट गौतम अधिकारी ने बताया कि यह बहुत ही पुरानी संस्था है. उन्होंने यहां तक कहा कि है पूर्वांचल की सबसे पुरानी पूजा समिति है. पूजा पंडाल बनाने के लिए कोलकाता से कारीगर आते हैं. यहां पर एक ही लकड़ी पर सारी प्रतिमाएं रहती हैं.
क्या कहते हैं कारीगर
वहीं कोलकाता से पंडाल को बनाने पहुंचे कारीगर ने बताया कि लगभग 4 हजार बांस से यहां पर पंडाल बनाया जाता है. लगभग 15 से 20 कारीगर पूरी मेहनत और तनमयता के साथ पंडाल के निर्माण में जुड़ते हैं. इसमें 20 मीटर लाल कपड़ा लगता है. 20 किलो नारियल का रस्सी सहित अन्य सामान लगाया जाता है.